काशी के साकेत नगर में सुधीर सिंह का घर दूर से ही पहचान में आ जाता है। घर के बाहर खड़ी दो स्कार्पिओ कार और बंदूकों के साथ गश्त करते तीन सुरक्षा गार्ड इस घर को बाकियों से अलग कर रहे हैं।
सुधीर सिंह वही व्यक्ति हैं जो काशी में सबसे मजबूती से यह दावा कर रहे हैं कि अयोध्या के बाद अब काशी-मथुरा बाकी है के नारे को हकीकत में बदलने का समय आ गया है। वे कहते हैं, अगर लॉकडाउन न हुआ होता तो अब तक या तो काशी विश्वनाथ मुक्त हो गया होता,
या फिर हम राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत जेल में बंद होते। उनके इस बयान का पहला हिस्सा भले ही काल्पनिक हो, लेकिन दूसरा हिस्सा काफी हद तक सही है। बीते कुछ समय में सुधीर सिंह की कई गतिविधियां ऐसी रही हैं.
जिनके चलते उन पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत मुकदमा दर्ज हो सकता था। राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के कुछ ही समय बाद सुधीर सिंह ने बनारस में ‘काशी विश्वनाथ मुक्ति आंदोलन’ की शुरुआत कर दी।
फरवरी में महाशिवरात्रि के दिन काशी के मशहूर अस्सी घाट पर इसकी औपचारिक घोषणा की गई। सुधीर सिंह दावा करते हैं कि लगभग दस हजार लोग इस मौके पर उनके साथ मौजूद थे जिन्होंने ‘हर-हर महादेव’ के उद्घोष के साथ उस दिन संकल्प लिया कि काशी विश्वनाथ मंदिर से सटी ज्ञानवापी मस्जिद को अब हटाकर ही मानेंगे।
बीते आठ महीनों में सुधीर सिंह दो बार जेल भी जा चुके हैं। उनकी पहली गिरफ्तारी तब हुई थी जब उन्होंने काशी के संकटमोचन मंदिर से ज्ञानवापी तक ‘दण्डवत यात्रा’ निकालने का ऐलान किया। यह यात्रा कई मुस्लिम बहुल इलाकों से होकर निकलनी थी,
लिहाजा माहौल बिगड़ने की आशंका को देखते हुए स्थानीय प्रशासन ने यात्रा से एक दिन पहले ही सुधीर सिंह को गिरफ्तार कर बनारस जिला जेल भेज दिया।तीन दिन जेल में रहने और दस लाख के जमानती पेश करने के बाद सुधीर सिंह को जमानत मिल गई।
लेकिन कुछ ही दिनों बाद उन्होंने अपने समर्थकों के साथ मिलकर एक और विवादास्पद आयोजन किया। इस बार वे काशी कोतवाल कहलाने वाले बाबा भैरव नाथ के मंदिर पहुंचे और यहां उन्होंने काशी विश्वनाथ की मुक्ति के लिए एक ‘मुक्ति पत्रक’ मंदिर में दिया।
इस बार मंदिर से ही सुधीर सिंह को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया जहां वे चार दिन रहे और दोबारा दस लाख के जमानती पेश करने के बाद रिहा हुए। ये घटना देश भर में लागू हुए लॉकडाउन से ठीक पहले की है।
लॉकडाउन शुरू हुआ तो सुधीर सिंह की गतिविधियों पर भी रोक लग गई। लेकिन इस दौरान वे सोशल मीडिया के माध्यम के इस मुद्दे को लगातार बेहद आक्रामक तरीके से उठाते रहे हैं। वे बताते हैं कि काशी-मथुरा बाकी है के
नारे पर भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (RSS) भले ही खुले तौर से अभी कुछ नहीं कह रहे लेकिन सोशल मीडिया पर भाजपा के आईटी सेल से उन्हें पूरा समर्थन मिल रहा है। सुधीर सिंह ऐसे अकेले व्यक्ति नहीं हैं.
जो काशी विश्वनाथ की कथित मुक्ति के लिए बनारस में इन दिनों मुखर हैं। अखिल भारतीय संत समिति, अखाड़ा परिषद और खुद काशी विश्वनाथ मंदिर से जुड़े कुछ पुजारी भी अब इस मुद्दे पर बोलने लगे हैं। विश्वनाथ मंदिर के अर्चक श्रीकांत मिश्रा ने तो हाल ही में सोशल मीडिया पर एक पोस्ट करते हुए लिखा है,
समुदाय विशेष को वाराणसी के ज्ञानवापी स्थित कब्जे वाले उस धर्मस्थल को हृदय पक्ष के स्वच्छ भाव व स्वस्थ मानसिकता से छोड़ देना चाहिए जो एक आक्रांता के द्वारा बर्बरता से बाबा विश्वनाथ के मन्दिर को तोड़कर बनाया गया।
काशी-मथुरा बाक़ी है’ के नारे का आगे बढ़ाता हुआ यह घटनाक्रम काशी में ऊपरी तौर से नजर आता है। लेकिन इस घटनाक्रम का काशी की आम जनता पर क्या और कितना असर है? इस सवाल का जवाब देते हुए यहां ट्रैवल का काम करने वाले युवा राजू पाल कहते हैं,
जनता के बीच ऐसे नारों और ऐसी घटनाओं का कोई असर नहीं है। सुधीर सिंह इस मुद्दे के चलते अपनी राजनीतिक जमीन तलाश रहे हैं और बाकी लोग भी सुर्खियों में आने के लिए इसे उठा रहे हैं। ये सभी ऐसे लोग हैं जिनकी जनता के बीच कोई पकड़ नहीं है।
सुधीर सिंह पर इस मुद्दे के चलते अपनी राजनीति साधने के जो आरोप लग रहे हैं, उसके पीछे कई मज़बूत कारण हैं। सुधीर कई साल तक समाजवादी पार्टी से जुड़े रहे हैं, वे पार्टी के प्रदेश सचिव रह चुके हैं और काशी से मेयर का चुनाव भी लड़ चुके हैं।
अब वे इस संभावना को भी स्वीकारते हैं कि भविष्य में वे भाजपा में शामिल हो सकते हैं और मऊ के बाहुबली नेता मुख्तार अंसारी के खिलाफ भाजपा से उन्हें टिकट मिल सकता है। वे बताते हैं कि भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह से उनकी बातचीत भी चल रही है।
यही कारण हैं कि सुधीर सिंह जब काशी विश्वनाथ मुक्ति आंदोलन’ जैसी कोई मुहीम चलाते हैं तो वे सुर्खियों में तो आते हैं लेकिन काशी के आम जनमानस पर इसका कोई प्रभाव नहीं होता। मुफ्ती-ए-बनारस और ज्ञानवापी मस्जिद के इमाम अब्दुल बातिन नोमानी कहते हैं,
इस तरह की मुहिम और काशी-मथुरा बाकी है जैसे नारों की बनारस में कोई अहमियत नहीं है। यहां कुछ घटनाक्रम ऐसे जरूर हुए थे जिनके चलते मुस्लिम समुदाय में ज्ञानवापी को लेकर आशंकाएं पैदा हुई थी लेकिन अभी फिलहाल ऐसा कुछ नहीं है।
बनारस और अयोध्या में बहुत फर्क है, यहां अयोध्या जैसी घटना का दोहराव मुमकिन नहीं है। काशी में अयोध्या जैसी घटना की संभावना को नकारते हुए बनारस के वरिष्ठ पत्रकार एके लारी कहते हैं, यहां का सामाजिक ताना-बाना बेहद मज़बूत है।
मशहूर बनारसी साड़ी का ही उदाहरण लीजिए। इसे बनाने वाले अधिकतर बुनकर मुसलमान हैं जबकि अधिकतर गद्दीदार हिंदू। सब एक-दूसरे पर निर्भर है। ज्ञानवापी में भी एक तरफ हिंदू आबादी है तो वहीं बड़ी संख्या में मुस्लिम आबादी भी बसती है।
लिहाजा यहां वैसा कुछ नहीं हो सकता जैसा अयोध्या में हो गया। कुछ लोग यहां आपसी सौहार्द को बिगाड़ने की कोशिश करते हैं लेकिन उनकी संख्या भी बहुत कम है और उनका कोई असर भी नहीं है। काशी में बन रहे चर्चित काशी विश्वनाथ कॉरिडोर की जब शुरुआत हुई थी,
तब जरूर स्थानीय लोगों में ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर आशंकाएं पैदा होने लगी थीं। इन आशंकाओं को अयोध्या पर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने कुछ और बल दिया और काशी-मथुरा बाकी है. का नारा जोर पकड़ने लगा था।
हालांकि आज स्थिति उससे काफी अलग है और काशी के आम जनमानस में इस नारे का कोई सीधा असर नजर नहीं आता। लेकिन इसका ये मतलब भी नहीं है कि ये नारा अब अप्रासंगिक हो गया है या इसे उछालने वालों को पूरी तरह नजरंदाज किया जा सकता है।
ऊपरी तौर से देखने पर काशी में फिलहाल इस नारे की जनता के बीच भले ही कोई पकड़ नहीं दिखती लेकिन सतह के नीचे आज भी वे संगठन बेहद मजबूत और सक्रिय हैं जिन्होंने 80-90 के दशक में अयोध्या तो झांकी है,
काशी मथुरा बाकी है, के नारे को जन्म दिया था। इस सक्रियता को काशी में हुई एक हालिया घटना में आसानी से देखा जा सकता है.
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